भारत पर चीन के १९६२ के आक्रमण के बाद से ही भारत चीन रिश्तो में कभी भी अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। इस युद्ध में अमेरिकी दबाव में आकार चीन ने युद्धविराम की घोषणा करते हुए भारतीय भूभाग से तो अपनी सेना वापस बुला ली थी लेकिन अक्साई चीन सहित लगभग चौरासी हजार वर्गमील भारतीय क्षेत्र पर कब्ज़ा करके भारत की संप्रभुता पर बहुत गहरी चोट पहुचाई। इन सबके बावजूद भी चीन की भारत नीति हमेशा आक्रामक ही रही। वह कभी भी भारत को आक्रामक होने का मौका ही नहीं देना चाहता । इससे पहले की भारत अपने भूभाग को दृढ़ता के साथ वापस लेने का प्रयास कर सके चीन ने अरुणांचल प्रदेश पर अपना दावा ठोक दिया। बड़ी विडम्बना है की भारत सरकार शिर्फ़ विरोध प्रकट करने में अपना समय व्यतीत कर रही है वह भी बहुत ही संयमित होकर। भारतीय रणनीतिकारो को यह डर सताने लगता है की कही चीन के साथ उसके रिश्ते ख़राब न हो जाये। ऐसा लगता है की जैसे चीन के साथ बहुत मधुर सम्बन्ध हों।आजादी के पहले जिस तिब्बत पर ब्रिटिश भारतीय रेजिडेंट निति नियामक थे। उस तिब्बत को नेहरू जी ने चीन को दोस्ती के उपहार स्वरूप दे दिया था। इसका परिणाम यह निकला की अज वह भारतीय क्षेत्र तवांग को ही तिब्बत का हिस्सा बताने पर तुला हुआ है| कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश पर वह दोहरी नीति का इस्तेमाल कर भारत को दबाव में रहने के लिए मजबूर कर रहा है।
मनमोहन सरकार ने चीन के साथ सीमा विवाद के मुद्दे पर कोई दृढ पहल न करके विगत सरकार द्वारा की जा रही राजनीतिक भूलो की पुनरावृत्ति ही की है | उनके पास बचने का अच्छा बहाना है यहाँ तो लम्बे समय से चला आ रहा सीमा विवाद है| भारतीय भूभाग पर चीन दोवारा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को तोड़कर धृष्टता पूर्वक किये गए कब्जे को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मजबूती के साठुथाने के बजाय बड़ी आसानी के साथ इसे सीमा विवाद मान लिया है।
अभी भी कोई दृढ कूटनीतिक पहल न करना मनमोहन सरकार की कूटनीतिक विफलता कही जा सकती है, जो की चीन के साथ व्यापारिक हितो के मुद्दे पर भी फिसड्डी साबित हुई है।
मनमोहन सरकार ने चीन के साथ सीमा विवाद के मुद्दे पर कोई दृढ पहल न करके विगत सरकार द्वारा की जा रही राजनीतिक भूलो की पुनरावृत्ति ही की है | उनके पास बचने का अच्छा बहाना है यहाँ तो लम्बे समय से चला आ रहा सीमा विवाद है| भारतीय भूभाग पर चीन दोवारा अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को तोड़कर धृष्टता पूर्वक किये गए कब्जे को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मजबूती के साठुथाने के बजाय बड़ी आसानी के साथ इसे सीमा विवाद मान लिया है।
अभी भी कोई दृढ कूटनीतिक पहल न करना मनमोहन सरकार की कूटनीतिक विफलता कही जा सकती है, जो की चीन के साथ व्यापारिक हितो के मुद्दे पर भी फिसड्डी साबित हुई है।
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